
13 Sept 2022
श्रद्धा से श्राद्ध बना है।
श्रद्धापूर्वक किए गए कार्य को ही श्राद्ध कहते है।
श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है।
श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह श्राद्ध कहलाता है।
जीवित बुजुर्गों और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए उनकी अनेक प्रकार से सेवा पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है, परंतु पितरों के लिए श्रद्धा एवं कृतज्ञता प्रकट करने वाले को कोई निमित्त बनाना पड़ता है। यह निमित्त है श्राद्ध। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष जो 10 सितंबर से आरंभ होकर 25 सितंबर तक चलेगा। अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने तथा उनके स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त करने का यह सर्वोत्तम अवसर है। हिंदु परंपरा के अनुसार श्राद्ध पक्ष को दिवंगत आत्माओं से आशीष लेने का महापर्व के रूप में भी माना गया है।
पितरों के प्रति श्रद्धा का महापर्व श्राद्ध
पितरों के लिए कृतज्ञता के इन भावों को स्थिर रखना हमारी संस्कृति की महानता को ही प्रकट करता है, जिनके सत्कार के लिए हिन्दुओं ने वर्ष में 16 दिन का समय अलग निकाल लिया है। पितृ भक्ति का इससे उज्ज्वल आदर्श और कहीं मिलना कठिन है। पितृ पक्ष का हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति में बड़ा महत्व है। आश्विन मास का कृष्ण पक्ष, पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहलाता है। इस दौरान पितरों का तर्पण श्रद्धा द्वारा पूरा किया जाता है। हिन्दु शास्त्रों के अनुसार मुत्यु होने पर मनुष्य की जीवात्मा चन्द्रलोक की तरफ जाती है और ऊंची उठकर पितृलोक में पहुंचती है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुंचने की शक्ति प्रदान करने के लिए पिण्डदान और श्राद्ध का विधान किया गया है। धर्म शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि जो मनुष्य श्राद्ध करता है, वह पितरों के आशीर्वाद से आयु, पुत्र, यश, बल, बैभव, सुख और धन-धान्य को प्राप्त करता है।
माता पिता व गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता की भावना, जीवन भर धारण किये रहना आवश्यक है। यदि इन गुरुजनों का स्वर्गवास हो जाय, तो भी मनुष्य की वही श्रद्धा स्थिर रहनी चाहिए। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात् पितृ यज्ञों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिन, पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का विधान प्राचीन ग्रंथों में, स्मृतियों में पाया जाता है।
श्राद्ध तर्पण का लाभ मिलता है?
दिवंगत हुए अपने पूर्वजों, व्यक्तियों का श्राद्ध कर्म करने से कुछ लाभ है कि नहीं?
इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, लाभ अवश्य होता है। संसार एक समुद्र के समान है, जिसमें जल-कणों की भांति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है, तो व्यक्ति एक परमाणु। जीवित या मृत व्यक्ति की आत्मा इस विश्व में मौजूद है और अन्य समस्त आत्माओं से उसका संबंध हैं। छोटा सा यज्ञ करने पर उसकी दिव्य गंध व भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुंचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुंचाता है। यह सूक्ष्म भाव-तरंगें तृप्तिकारक और आनंददायक होती हैं। सद्भावना की तरंगें जीवित मृत सभी को तृप्त करती हैं, परंतु अधिकांश भाव उन्हीं को पहुंचता है, जिनके लिए वह श्राद्ध विशेष प्रकार से किया गया है। तर्पण का वह जल उस पितर के पास नहीं पहुंचा, वहीं धरती में गिरकर विलीन हो गया, यह सत्य है।
यज्ञ में आहुति दी गयी सामग्री जलकर वहीं खाक हो गयी, यह सत्य है। पर यह कहना ठीक नहीं कि इस यज्ञ या तर्पण से किसी का कुछ लाभ नहीं हुआ। धार्मिक कर्मकाण्ड स्वयं अपने आपमें कोई बहुत बड़ा महत्व नहीं रखते। महत्त्वपूर्ण तो वे भावनाएं हैं, जो उन अनुष्ठानों के पीछे काम करती हैं। श्राद्ध को केवल रुढ़िवादी परंपरा मात्र से पूरा नहीं कर लेना चाहिए, वरन् पितरों के द्वारा जो उपकार हमारे ऊपर हुए हैं, उनका स्मरण करके, उनके प्रति अपनी श्रद्धा और भावना की वृद्धि करनी चाहिए। साथ-साथ अपने जीवित बुजुर्गों को भी नहीं भूलना चाहिए। उनके प्रति भी आदर, सत्कार और सम्मान के पवित्र भाव रखने चाहिए।
श्राद्ध करना क्यों जरूरी
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय। ।
पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।
पृथ्वी पर कोई भी दृश्य-अदृश्य वस्तु सूर्यमंडल तथा चंद्रमंडल के सम्पर्क से ही बनती है। देवताओं के लिए सूर्य का मंडल और पितरों के लिए चंद्रमंडल माना गया है। जैसे सूर्य का ताप फैलने से बहुत से जीव-जंतु और वनस्पतियाँ अस्तित्व खो देते हैं उसी प्रकार चंद्र का प्रकाश फैलने से बहुत से जीव-जंतु उत्पन्न हो जाते हैं। सूर्य और चंद्र की किरणों से कई जीव, वनस्पति का जन्म होता है और बहुत से अपना जन्म गवाँ बैठते हैं। लेकिन दोनों की सम्मिलित किरण का प्रभाव भी व्यापक स्तर पर होता है।
धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। यहाँ आत्माएँ मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहते हैं। यह सभी जानते हैं कि उत्तरायण में देव जागृत रहते हैं और दक्षिणायन में सो जाते हैं। उसी तरह चंद्रमास के कृष्ण पक्ष को पितरों का पक्ष माना जाता है।
सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल, व्यतिपात, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
शास्त्र अनुसार शरीर में पंचकोष में (जड़, प्राण, मन, बुद्धि और आनंद) आत्मा तीन रूप में विद्यमान रहता है- 1. विज्ञान आत्मा, 2. महान आत्मा और 3. भूत आत्मा।
कहना चाहिए कि अपने-अपने कर्म अनुसार किसी भी आत्मा को आत्मशक्ति प्राप्त होती है। शरीर, सूक्ष्म शरीर और मन नहीं हो तो आत्मशक्ति के बल पर ही अपना अस्तित्व स्थापित किया जाता है, लेकिन यह सब शरीर में रहकर ही किया जा सकता है।
1. विज्ञान आत्मा : विज्ञान आत्मा का अर्थ है विशेष ज्ञान प्राप्त आत्मा। माना जाता है कि जो आत्मा गर्भधान से पहले स्त्री-पुरुष में संभोग की इच्छा उत्पन्न करता है, वह आत्मा रोदसी नामक मंडल से आता है। उक्त मंडल पृथ्वी से सत्ताईस हजार मील दूर कहा गया है।
2. महान आत्मा : शास्त्र अनुसार महान आत्मा चंद्रलोक से अट्ठाइस अंशात्मक रेतस बनाकर आता है। उसी 28 अंश रेतस से पुरुष पुत्र पैदा करता है। रेतस का अर्थ होता है सोम। सोम का अंश। हमारे शरीर में पाँच तत्वों में सोम का अंश भी रहता है।
3. भूतात्मा : माना जाता है कि माता-पिता द्वारा खाए गए अन्न के रस से बने वायु द्वारा गर्भ में जो प्रवेश करता है उसे भूतात्मा कहते हैं। ऐसी प्रज्ञानात्मा या भूतात्मा पृथ्वी के अलावा किसी अन्य लोक भ्रमण नहीं कर सकती है।
मृत प्राणी की आत्मा अपने कर्म अनुसार या तो धरती पर सुप्तावस्था में पड़ा रहता है या पुनर्जन्म की प्राकृतिक प्रक्रिया में शामिल हो जाता है या चंद्रलोक में चला जाता है। प्रत्येक आत्मा के साथ उसके कर्म और विचार अनुसार अलग-अलग न्याय होता है।
अकाल मृत्यु, इच्छा लेकर मरे और बहुत ज्यादा दुख-संताप झेलकर मरे लोग आसानी से मुक्त नहीं हो पाते। वे सभी पितर अपनी-अपनी आत्मशक्ति के बल पर स्थिति और स्थान पाते हैं। फिर भी सभी चंद्रमंडल के बंधन में ही बँधे रहते हैं। यही पितर अपनी पीढ़ियों से मुक्ति की कामना रखते हैं। जो इनकी कामना की पूर्ति करते हैं पितर उनको आशीर्वाद देते हैं और पितरों के आशीर्वाद जल्द ही फलित भी होते हैं।
चंद्रलोक में गई महानात्मा से 28 अंश रेतस माँगा जाता है, क्योंकि चंद्रलोक से 28 अंश रेतस लेकर ही वह उत्पन्न हुआ था। 20 अंश रेतस (सोम) को 'पितृ ॠण' कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में 'श्रद्धा' नामक मार्ग से भेजे जाने वाले 'पिण्ड' तथा 'जल' आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल से है। मध्याह्ल में ही श्राद्ध किया जाता है।
संसार में सोम संबंधी वस्तु विशेषत: चावल और जौ ही है। धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है। अश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिण्डदान किया जाए तो चंद्रमंडल को रेतस पहुँच जाता है, पितर इसी चंद्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते हैं। अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की ओर रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है।
पितृ पक्ष में जो तर्पण किया जाता है, उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यायित होता है। ठीक अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है, 15 दिन पश्चात अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ पितृप्राण रवाना हो जाता है। इसलिए इसे पितृ पक्ष कहते हैं। पितृ पक्ष में पितृप्राण चंद्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते हैं, वे स्वत: ही चन्द्र पिण्ड की परिवर्तित स्थिति के कारण पृथ्वी पर व्याप्त होते हैं, इसी कारण पितृ पक्ष में तर्पण का इतना महत्व है।
शास्त्रों में निर्देश है कि यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हें अमृत रूप में प्राप्त होता है, यदि उन्हें गन्धर्व लोक की प्राप्ति हो तो वह अन्न उन्हें भोग्य रूप में प्राप्त होता है, यदि वह पशु योनि में हो तो वह अन्न उन्हें तृण रूप में प्राप्त होता है, यदि वह प्रेत योनि में हो तो वह अन्न उन्हें रुधिर रूप में प्राप्त होता है और यदि कर्मानुसार मनुष्य योनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हें अन्न आदि के रूप में प्राप्त होता है।
श्राद्ध पक्ष आते ही सभी पितृ मनोमय रूप में श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते हैं और वायु रूप में भोजन प्राप्त करते हैं। सूर्य कन्या राशि में आता है, तो पितर अपने पुत्र और पौत्रों के घर जाते हैं। अत: उन्हें पत्र, पुष्प, फल और जल तर्पण से यथा शक्ति उन्हें तृप्त करना चाहिए। यज्ञ या धूप से उठने वाले सुगंधित तथा पाँच तत्वों से मिश्रित धुएँ से उनको तृप्ति मिलती है। इसीलिए जौ, चावल, दूध, घी और गुड़ आदि से धूप देकर अँगूठे से जल अर्पण किया जाता है।
कन्या राशि में सूर्य रहने पर भी जब श्राद्ध नहीं होता तो पितर तुला राशि के सूर्य तक पूरे कार्तिक मास में श्राद्ध का इंतजार करते हैं और तब भी न हो तो सूर्य देव के वृश्चिक राशि पर आने पर पितर निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। जो व्यक्ति श्राद्ध से विमुख होता है वह दुख पाता है। मृत्यु के बाद वह भी पितर कहलाता है।