
23 Sept 2022
भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण से आरंभ होकर यह आश्विन कृष्ण अमावस्या तक जिसे महालया कहते हैं
पितृ पक्ष, पितरों का याद करने का समय माना गया है। भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण से आरंभ होकर यह आश्विन कृष्ण अमावस्या तक जिसे महालया कहते हैं उस दिन तक पितृ पक्ष चलता है। इस दौरान पितरों की पूजा की जाती है और उनके नाम से तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। पितृ पूजा में कई बातें ऐसी हैं जो रहस्यमयी हैं और लोगों के मन में सवाल उत्पन्न करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है..
श्राद्ध का नियम है कि दोपहर के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। शास्त्रों में सुबह और शाम का समय देव कार्य के लिए बताया गया है।लेकिन दोपहर का समय पितरों के लिए माना गया है। इसलिए कहते हैं कि दोपहर में भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। दिन का मध्य पितरों का समय होता है। दरअसल पितर मृत्युलोक और देवलोक के मध्य लोक में निवास करते हैं जो चंद्रमा के ऊपर बताया जाता है।
दूसरी वजह यह है कि दोपहर से पहले तक सूर्य की रोशन पूर्व दिशा से आती है जो देवलोक की दिशा मानी गई है। दोपहर में सूर्य मध्य में होता है जिससे पितरों को सूर्य के माध्यम से उनका अंश प्राप्त हो जाता है। तीसरी मान्यता यह है कि, दोपहर से सूर्य अस्त की ओर बढ़ना आरंभ कर देता है और इसकी किरणें निस्तेज होकर पश्चिम की ओर हो जाती है। जिससे पितृगण अपने निमित्त दिए गए पिंड, पूजन और भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।
पितृपक्ष में पितरों का आगमन दक्षिण दिशा से होता है। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिण दिशा में चंद्रमा के ऊपर की कक्षा में पितृलोक की स्थिति है। इस दिशा को यम की भी दिशा माना गया है। इसलिए दक्षिण दिशा में पितरों का अनुष्ठान किया जाता है। रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब दशरथ की मृत्यु हुई थी तो भगवान राम ने स्वपन में उनको दक्षिण दिशा की तरफ जाते हुए देखा था। रावण की मृत्य से पहले त्रिजटा ने स्वप्न में रावण को गधे पर बैठकर दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए देखा था।
सनातन धर्म के अनुसार, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। शरीर को भी पिंड माना जा सकता है। धरती को भी एक पिंड रूप है। हिंदू धर्म में निराकार की पूजा की बजाय साकार स्वरूप की पूजा को महत्व दिया गया है क्योंकि इससे साधना करना आसान होता है। इसलिए पितरों को भी पिंड रूप मानकर यानी पंच तत्वों में व्यप्त मानकर उन्हें पिडदान दिया जाता है।
पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए चावल को पकाकर उसके ऊपर तिल, शहद, घी, दूध को मिलाकर एक गोला बनाया जाता है जिसे पाक पिंडदान कहते हैं। दूसरा जौ के आटे का पिंड बनाकर दान किया जाता है। पिंड का संबंध चंद्रमा से माना जाता है। पिंड चंद्रमा के माध्यम से पितरों को प्राप्त होता है। ज्योतिषीय मत यह भी है कि पिंड को तैयार करने में जिन चीजों का प्रयोग होता है उससे नवग्रहों का संबंध है। इसके दान से ग्रहों का अशुभ प्रभाव दूर होता है। इसलिए पिंडदान से दान करने वाले को लाभ मिलता है।
पितरों की पूजा में सफेद रंग का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है क्योंकि सफेद रंग सात्विकता का प्रतीक है। आत्मा का कोई रंग नहीं है। जीवन के उस पार की दुनियां रंग विहीन पारदर्शी है इसलिए पितरों की पूजा में सफेद रंग का प्रयोग होता है। दूसरी वजह यह है कि सफेद रंग चंद्रमा से संबंध रखता है जो पितरों को उनका अंश पहुंचाते हैं।
पुराणों के अनुसार, व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि को हुई होती है, उसी तिथि में उसका श्राद्ध करना चाहिए। यदि जिनकी मृत्यु के दिन की सही जानकारी न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या तिथि को करना चाहिए। श्राद्ध मृत्यु वाली तिथि को किया जाता है। मृत्यु तिथि के दिन पितरों को अपने परिवार द्वारा दिए अन्न जल को ग्रहण करने की आज्ञा है। इसलिए इस दिन पितर कहीं भी किसी लोक में होते हैं वह अपने निमित्त दिए गए अंश को वह जहां जिस लोक में जिस रूप में होते हैं उसी अनुरूप आहार रूप में ग्रहण कर लेते हैं।
श्राद्ध पक्ष में कौए का बड़ा ही महत्व है। श्राद्ध का एक अंश कौए को भी दिया जाता है। कौए के संबंध में पुराणों बहुत ही विचित्र बात बताई गई है, मान्यता है कि कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौआ अगर आपके दिए अन्न को आकर ग्रहण कर ले तो तो माना जाता है कि पितरों की आप पर कृपा हो गई। गरुड़ पुराण में तो कौए को यम का संदेश वाहक कहा गया है। आइए जानते हैं कौए के बारे में और रोचक जानकारी…
श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है। पितृपक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौए को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उनके पितर ग्रहण करते है। शास्त्रों में बताया गया है कि कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है। यहा यम का दूत होता है।
आश्विन महीने में कृष्णपक्ष के 16 दिनों में कौआ हर घर की छत का मेहमान होता है। लोग इनके दर्शन को तरसते हैं। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। इन दिनों में कौए एवं पीपल को पितृ का प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
हमारे धर्म ग्रंथ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओं और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को रस चख लिया था। यही कारण है कि कौए की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती है। यह पक्षी कभी किसी बीमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।
यह बहुत ही रोचक है कि जिस दिन कौए की मृत्यु होती है, उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता। यह आपने कभी ख्याल किया हो तो कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता। यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है। भोजन बांटकर खाने की सीख हर किसी को कौए से लेनी चाहिए।
कौए के बारे में पुराण में बताया गया है कि किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है। कौए को यमस्वरूप भी माना जाता है और न्याय के देवता शनिदेव का वाहन भी है।
कौआ का सबसे पहला रूप देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने लिया था। त्रेतायुग में एकबार जब भगवान राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मार दी थी। तब श्री राम ने तिनके से जयंत की आंख फोड़ दी थी। जयंत ने अपने किए की माफी मांगी, तब राम ने वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में तुम्हें हिस्सा मिलेगा। तभी से यह परम्परा चली आ रही है कि पितृ पक्ष में कौए को भी एक हिस्सा मिलता है।
क्यों दोपहर के समय कराया जाता है श्राद्ध का भोजन, जानें इसकी वजह !
पितृ पक्ष में पितरों के निमित्त तर्पण और श्राद्ध किया जाता है. श्राद्ध का भोजन दोपहर में कराया जाता है.
लेकिन क्या आप इसकी वजह जानते हैं? यहां जानिए इसके बारे में.
पितृ पक्ष 10 सितंबर से शुरू हो चुका है और इसका समापन 25 सितंबर को होगा. पितृ पक्ष अपने पूर्वजों को याद करने और उनके उपकार का आभार व्यक्त करने के दिन माने जाते हैं. मान्यता है कि इस बीच हमारे पूर्वज हमारे आसपास धरती लोक पर ही होते हैं. इन दिनों में पितरों के निमित्त तर्पण और श्राद्ध किया जाता है. व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि पर हुई है, उसी तिथि पर उसकी श्राद्ध की जाती है. अगर आपको तिथि याद नहीं, तो अमावस्या के दिन श्राद्ध कर सकते हैं. श्राद्ध का भोजन दोपहर में कराया जाता है. लेकिन क्या आप इसकी वजह जानते हैं ? अगर नहीं, तो आइए हम आपको बताते हैं.
दोपहर को माना गया है पितरों का समय
इस मामले में पंडित सतीश नागर बताते हैं कि शास्त्रों में सुबह और शाम का समय देव कार्य के लिए, घोर अंधेरे का समय आसुरी और नकारात्मक शक्तियों की प्रबलता का और दोपहर का समय पितरों का बताया गया है. इसके अलावा पितृ लोक मृत्युलोक और देवलोक के बीच और चंद्रमा के ऊपर स्थित बताया गया है. मध्य समय पितरों को समर्पित होने के कारण श्राद्ध का भोज दोपहर में खिलाकर उन्हें समर्पित किया जाता है.
सूरज की किरणों से ग्रहण करते हैं पित्र भोजन
दूसरी वजह ये मानी जाती है कि सूरज पूर्व दिशा से निकलता है, जो कि देवों की दिशा है और दोपहर के समय वो मध्य में पहुंच जाता है. मान्यता है कि धरती पर पधारने वाले हमारे पितर सूरज की किरणों के द्वारा ही श्राद्ध का भोजन ग्रहण करते हैं. चूंकि दोपहर तक सूर्य अपने पूरे प्रभाव में आ चुका होता है, इसलिए दोपहर के समय पूर्वज उनके निमित्त किए गए पिंड, पूजन और भोजन को आसानी से ग्रहण कर लेते हैं. इस कारण श्राद्ध का सबसे श्रेष्ठ समय दोपहर का है. पंडित सतीश नागर कहते हैं कि श्राद्ध कभी सूर्य के अस्त होने के समय या अस्त होने के बाद नहीं करनी चाहिए.
इस तरह करें श्राद्ध
पंडित सतीश नागर कहते हैं कि श्राद्ध को पूरे नियम और समर्पण से करना चाहिए, इससे पितरों का आशीष प्राप्त होता है. श्राद्ध वाले दिन आप घर की दक्षिण दिशा में सफेद वस्त्र पर पितृ यंत्र स्थापित कर उनके निमित, तिल के तेल का दीप व सुगंधित धूप करें. इसके बाद तिल मिले जल से तर्पण दें. कुश आसन पर बैठकर गीता के 16वें अध्याय का पाठ करें और भगवान से अपने पितरों की मुक्ति की प्रार्थना करें. इसके बाद ब्राह्मण को पूरे आदर और श्रद्धा के साथ भोजन कराएं. उन्हें भोजन कराने तक स्वयं व्रत रखें. उनका भोजन पूरी साफ सफाई से बनवाएं और प्याज लहसुन का इस्तेमाल न करें. भोजन के बाद उन्हें वस्त्र-दक्षिणा दें और पैर छूकर आशीर्वाद लें और अपने पितरों से गलती की क्षमायाचना करें. शाम के समय दक्षिण दिशा में सरसों के तेल का दीपक जलाकर रखें.